रविवार, 26 सितंबर 2010

जितना पैसा, उतना काम पत्रकारिता का काम तमाम

छत्तीसगढ़ में अखबारों का जितना व्यवसायीकरण हुआ है उससे यादा पत्रकारिता और पत्रकारों का व्यवसायीकरण हुआ है खबरें इंच सेमी में बेचने में तो प्रतिष्ठत माने जाने वाले अखबार भी पीछे नहीं है। चुनाव लड़ने वाले राजनैतिक दल के प्रत्याशियों से पैकेज लेने की तो जैसे परम्परा ही चल पड़ी है। ऐसे में पत्रकारिता करने वाले भी कहां पीछे हटते। रोज छपने वाले अखबारों के पत्रकार तो जितना पैसा उतना काम की रणनीति ही नहीं अख्तियार किये हैं बल्कि अलग अलग बीटों में बंट गये है। हालत यह है कि अपनी बीट को छोड़ दूसरे के बीट की तरफ कोई देखता भी नहीं है चाहे कितनी भी बड़ी खबर हो। पिछले दिनों पंडरी के एक दंपत्ति अपने पुत्र की हत्या की आशंका जताते हुए प्रेस क्लब पहुंचे यहां नवभारत भास्कर सहित कई अखबारों के प्रतिनिधि मौजूद थे। ये सब प्रेस कांफ्रेस अटेंड करने आये थे। प्राय सभी का यही जवाब था। पुलिस दूसरा देखता है। प्रेस आ जाना। यानी इस दंपत्ति की बात सुननी तो दूर विज्ञप्ति तक कोई लेने तैयार नहीं था।
यह पत्रकारिता की भयंकर भूल हो सकती है आरै भटकते लोगों के साथ ये अन्याय नहीं तो और क्या है जबकि आज भी आम लोगों की पत्रकारिता से बेहद उम्मीद है।
देहाड़ी मजदूरी भी शुरू
 वैसे तो भास्कर के नित नये प्रयोग किसी से छिपे नहीं है। प्रयोगवादी इस अखबार ने अपने को स्थापित करने आये दिन कुछ नया करने रहता है। इस बार उसने अपने स्टार में देहाड़ी मजदूर की परम्परा शुरू की है। महिने का तनख्वाह वाला सिस्टम खतम। सप्ताह का झंझट भी कौन पाले। इसलिए रोज जाओ काम करो पैसा पाओ। अब काम करने वाला ज्ञान हो या ...क्या फर्क पड़ता है।
डर का भूत
पिछले दिनों संजय पाठक की भास्कर में वापसी हुई। इससे पहले वह भास्कर छोड़कर हरिभूमि गया था। कहते हैं भास्कर छोड़ते की वजह नवीन थे और नवीन हरिभूमि पहुंचा तो वह हरिभूमि छोड़ दिया। प्रेस क्लब में इसकी बेहद चर्चा है और नवभारत के पत्रकारों के मुताबिक नवीन तो अब राव की भूमिका में हैं।

हड़ताल नहीं करने का फल भुगतो
अखबार लाईन में एक कहावत है तनख्वाह बढानी हो तो अखबार जल्दी बदलों। लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि हड़ताल में शामिल नहीं होने पर नौकरी से निकाल दे और हड़ताल करने वालों की नौकरी बरकरार रहे। यह सब हुआ है हिन्दूस्तान में यही सब हुआ। पिछले माह हड़ताल हुई तो कुछ लोग काम करते रहे और जब मामला सुलझा हड़ताल खतम हुआ तो उसके सप्ताह भर बाद हड़ताल नहीं करने वाले चैनल से भगा दिये गए। यानी नौकरी तो गई ही साथियों के साथ गद्दारी का तोहमत अलग लगा।
और ..में ....
पूरे प्रेस को व्यवसायिकता के रंग में रगने वाले एक अखबार मालिक को अब कांग्रेस की राजनीति भारी पड़ सकती है। कभी इस अखबार मालिक की जी हुजुरी करने वाले संवाद के अधिकारी अब प्रेस के अवैध निर्माण को तुड़वाने ऐसे बंदे की तलाश कर रहे हैं जो कोर्ट में याचिका दायर कर सके और सेट भी न हो।

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